Sunday, August 30, 2009

प्रेम प्रेम ...

in response to kavyagni
प्रेम प्रेम जो करते हो,
प्रेम पे कविताये लिखते हो,
ये बताओ ऐ कवी,
क्या तुमने प्यार किया है,
क्या कभी तुम दुबे हो उस गागर में,
माना प्रेम एक सागर है,
क्या चखा है खट्टापन उसका तुमने?
ना प्रेम कोई धरा है, ना प्रेम कोई पूजा है, न प्रेम पवन न नदी है|
मृत्यु के बाद न प्यार रहता ये सब कहने की बाते हैं,
जो लोग मुर्ख होते वही जुनूनी ताकत दिखलाते हैं|
प्रेम तो केवल एक एहसास है इसे कुछ और नाम न दो,
हर व्यक्ति के जीवन में मिलता है उसे कोई ना कोई,
जिसके लिए सोच कर समझता है ये प्रेम है|
उसकी इस भावना को आकर्षण का बदनाम न दो|
एहसास की कोई सीमा नहीं, कोई तर्क नहीं, कोई आधार नहीं|
वो तो केवल होता है|
जैसे प्रभु को देखा किसी ने नहीं, पर हर ओई अपनी तरह उसे समझाता है|
कोई जीसस, कोई अल्लाह,कोई कृष्ण उसे बतलाता है|
पर है तो आखिर वो एक शक्ति, ना किसी ने सुनी न किसी ने देखी|
ना जाने किस आधार पे ये दुनिया उसका विवरण लिख जाती है|
बस यही बात मुझे कभी समझ नहीं आती है|
पुनीत सिंह

3 comments:

Phoenix said...

lyo ek aur kavi paida ho gaya. aur prem prem ki baaton mien ladayi bhi ho gayi! :D

Pratyush Garg said...

@ मेरे भाई पुनीत सिंह

बहुत सराहनीय प्रयास था... और मेरी कविता पर एक अच्छा कटाक्ष था।

पर भाई ये बतला दूँ मैं आज,
कि प्रेम तो मैंने भी किया है,
और एक बार नहीं बंधु,
हज़ार बार किया है।

कभी इससे कभी उससे,
बार बार मैंने ये किया है,
परंतु अब जाकर मुझे,
सच्चाई का इल्म हुआ है।

जिसे मैं प्रेम कहता था,
वो प्रेम नहीं कुछ और ही था,
बस दिखता था वो प्रेम-सरीखा,
अंदर झाँका तो मृगतृष्णा था।

रही जहाँ तक प्रभु की बात,
माना किसी ने उन्हें नहीं देखा,
पर तब भी तो उनका वर्णन करने से,
थकती नहीं ये दुनिया।

बात इतनी सी है मेरे भाई,
जिसको जो भाए वो उसे निभाए,
बस धोखे से वो बच जाए,
ये कवि बस यही चाहे।

-प्रत्यूष गर्ग

Aastha said...

wow impressive! nice...good work :)